वैसे तो भारत में कई नदिया हैं और लोगो द्वारा उन नदियों की पूजा भी की जाती हैं। यहां नदियों को मां कहकर बुलाते हैं जैसे गंगा मैया, यमुना मैया, आदि। लेकिन एक ऐसी नदी भी हैं जो इसके विपरीत समझी जाती हैं। इस नदी का नाम हैं कर्मनाशा नदी।
कर्मनाशा जिसका शाब्दिक अर्थ है धार्मिक गुणों का विनाशक। ऐसा माना जाता है कि इस नदी को श्राप लगा हुआ है और इसे अपवित्र माना जाता है। यह नदी पवित्र गंगा नदी की सहायक नदी हैं। ये बिहार के कैमूर जिले से निकलती हैं और बिहार और उत्तर प्रदेश से होकर बहती हैं।
यह नदी चार जिलों में बहती है – सोमभद्र जिला, चंदौली जिला, वाराणसी जिला और गाजीपुर जिला। यह नदी बक्सर के समीप गंगा नदी में जा मिलती हैं। ऐसा माना जाता है कि जो भी इसका पानी छू लेता है उसकी सभी योजनायें बाधित हो जाती हैं।
इस नदी के बारे में जानकारी हमे पौराणिक कथाओं से मिलती हैं। इस कथा के अनुसार त्रिशंकु के लार से इस नदी का जन्म हुआ था। यह कहा जाता है कि राजा त्रिशंकु, गुरु वशिष्ठ जो कि उनके कुलगुरु थे, उनके पास गए और कहा कि उन्हें सह शरीर स्वर्गलोक भेजा जाए। पर गुरु वशिष्ठ ने यह कहकर मना कर दिया कि यह सनातन धर्म के नियमों के विरुद्ध हैं।
बाद में वे गुरु वशिष्ठ के पुत्रों के पास गए और उनके सामने भी यही इच्छा प्रकट की। लेकिन गुरु वचन की अवज्ञा की बात कहते हुए उन्होंने त्रिशंकु को चंडाल होने का श्राप दे दिया। उसके बाद वे विश्वामित्र नामक संत के पास गए जो कि वशिष्ठ के द्रोही थे और त्रिशंकु ने उन्हें यह कहकर उकसाया कि उनका अपमान हुआ है।
तब अपने तपोबल से महर्षि विश्वामित्र ने उन्हें सह शरीर स्वर्ग में भेज दिया। देवताओं को इस पर आश्चर्य हुआ और वे गुरु श्राप से भ्रष्ट त्रिशंकु को नीचे मुह करके वापस धरती पर भेजने लगे। त्रिशंकु त्राहिमाम करते हुए वापस धरती पर जाने लगा। महर्षि विश्वामित्र ने यह जानकारी पाकर दोबारा उन्हें स्वर्ग में भेजने का प्रयास किया।
देवताओं और महर्षि विश्वामित्र के बीच युद्ध होने लगा और इस दौरान त्रिशंकु का सिर आसमान में नीचे लटकते रह गया। ऐसे में उनके मुह से तेज़ लार टपकने लगी, जिससे इस नदी का जन्म हुआ। त्रिशंकु सूर्यवंश के राजा थे, जिनका नाम सत्यव्रत था। वे महादानी राजा हरिश्चन्द्र के पिता थे।
कर्मनाशा नदी को अपवित्र माना जाता है क्योंकि इसे छूने मात्र से ही व्यक्ति के सारे पुण्य और कर्म खत्म हो जाते हैं और व्यक्ति पुण्यहीन हो जाता हैं। इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुए कोई भी व्यक्ति उस नदी के पानी को छूने से बचता है, क्योंकि कोई मनुष्य अपना पूण्य कर्म समाप्त नहीं करना चाहेगा।